मेरे प्रिय दोस्तों हम आज इस लेख में Arya Samaj Ki Sthapna | आर्य समाज की स्थापना किसने और कब की। के बारे में विस्तृत रूप से अवगत कराएंगे। अपको यह पोस्ट ध्यानपूर्वक पढ़ना होगा।
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Arya Samaj Ki Sthapna सर्वप्रथम कहाँ हुई थी?
आर्य समाज प्रमुख रूप से एक हिन्दू सुधार आंदोलन है, स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने इनकी 1875ई. में बंबई में मथुरा के स्वामी विरजानंद जी की प्रेरणा से किया था। यह आंदोलन पाश्चात्य प्रभावों की प्रतिक्रिया स्वरूप हिन्दू धर्म में सुधार के लिए शुरू हुआ था।
आर्य यमज के लोग शुद्ध वैदिक परंपरा को मानते थे। और मूर्ति पूजा, अवतरवाद, बलि, झूठे कर्मकांड, एवं अंधविश्वास को अस्वीकार करते थे। इसमें छुआछूत एवं जातिगत भेदभाव का विरोध किया एवं स्त्रियों , शूद्रों को भी (यज्ञोपवीत) धारण करने तथा वेद पढ़ने का अधिकार दिया था।
Arya Samaj Ki Sthapna की स्थापना का संक्षिप्त विवरण
सिद्धांत | कृशवंतों विश्वमार्यम (विश्व को आर्य बनाते चलो) |
स्थापना | 10 अप्रैल 1875 ई |
संस्थापक | स्वामी दयानंद सरस्वती |
प्रकार | धार्मिक संगठन |
वैधानिक स्थिति | न्यास |
उद्देश्य | शैक्षिक,धार्मिक शिक्षा, अध्यात्म,समाज सुधार |
मुख्यालय | नई दिल्ली |
सेवित क्षेत्र | सम्पूर्ण संसार |
आधिकारिक भाषा | हिन्दी |
मुख्य अंग | परोपकारिणी सभा |
संबद्धता | भारतीय |
स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा रचित सत्यार्थ प्रकाश नामक ग्रंथ आर्य समाज का मूल ग्रंथ है। आर्य समाज का आदर्श वाक्य है, ‘कृशवंतों विश्वमार्यम’ जिसका अर्थ है – “विश्व को आर्य बनाते चलो”।
आर्य समाज आंदोलन का प्रसार प्रायः पाश्चात्य प्रभावों को प्रक्रिया के रूप में हुआ।.यह आंदोलन केवल रूप में है, पुनरुत्थान था ना कि तत्वों में।
यह याद रहेगा ना तो स्वामी दयानंद ही और ना ही उनके गुरु स्वामी विरजानंद ही भाषा शिक्षा से प्रभावित हुए थे। यह दोनों ही शुद्ध रूप से परंपरा को मानने वाले मैं विश्वास करते थे, और उन्होंने पुनः “वेदों की ओर चलो” का नारा दिया।
उत्तर वैदिक काल से आज तक उन्होंने धर्म की संज्ञा दी।
स्वामी विरजनन्द – स्वामी विरजनन्द [1778 – 1868] जो संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे। यह वैदिक गुरु एवं आर्य समाज की स्थापना करने स्वामी दयानंद के गुरु थे। स्वामी विरजानंद जी को मथुरा के (अंधे गुरु के) नाम से भी प्रसिद्ध थे।
Arya Samaj Ki Sthapna Kisne Ki | आर्य समाज की स्थापना किसने की
स्थापना – 1875ई०
स्थान – बंबई
संस्थापक – स्वामी दयानंद सरस्वती
Arya Samaj Ki Sthapna Kab Hui Hai | आर्य समाज की स्थापना कब हुई
1863 ईस्वी में उन्होंने धर्मों का खंडन करने के लिए “पाखंड खंडनी पताका” लहराई। 1875 ई. में उन्होंने मुंबई में आर्य समाज की स्थापना की जिसका प्रमुख उद्देश्य प्राचीन वैदिक धर्म की स्थापना करना था, धार्मिक तथा सामाजिक कुरीतियां कालांतर में हिंदू समाज में आ गई थी, उन्हें जड़ से उखाड़ फेंकने का प्रण किया।
दयानंद सरस्वती ने 10 अप्रैल 1875 ई को बंबई में आर्य समाज की स्थापना की थी। इससे पहले उन्होंने 6 या 7 सितंबर 1872 को इस समय बिहार के आरा स्थान पर आगमन पर भी वहाँ आर्य समाज स्थापित किया था।
पूर्व इतिहास की जानकारी के आधार पर यह प्रथम आर्य समाज था। लेकिन इसके ही दो गतिविधियां हुई। सरस्वती के आरा चले जाने के कारण यह बंद हो गया था।
स्वामी दयानंद सरस्वती ने 31 दिसंबर 1874 से 10 जनवरी 1875ई. तक राजकोट में रहकर वैदिक धर्म का प्रचार किया। यहाँ पर जिस आवास की धर्मशाला में रुके हुए थे, वहाँ पर उन्होंने आठ व्याख्यान दिए। जिसके बिन्दु थे – ईश्वर, धर्मोंदय, वेदों का अनादि एवं अपौरुषेय होना, पुनर्जन्म, विद्या-अविद्या, मुक्ति और बंधन आर्यों का इतिहास एवं कर्तव्य।
स्वामी जी ने पं. महीधर एवं जीवन राम शास्त्री से मूर्ति पूजा एवं वेदान्त विषय पर शासतार्थ भी किया। स्वामी जी ने यहाँ राजाओं के पुत्रों की शिक्षा के कालेज, राजकुमार कालेज में एक व्याख्यान हुआ। उपदेश का विषय था।
अहिंसाः परमों धर्मः। और यहाँ पर स्कूल की तरफ से स्वामी जी को प्रो. मैक्समूलर संपादित ऋग्वेद भेंट किया गया था। रसजकोट में आर्यसमाज की स्थापना के विषय में पंडित देवेन्द्र नाथ मुखोपध्यायय रचित महर्षि दयानंद के जीवन चरित में निम्न विवरण प्राप्त होता है।
स्वामी जी ने यह प्रस्ताव किया की राजकोट में आर्यसमाज स्थापित किया जाय एवं प्रार्थना समाज को ही आर्यसमाज में प्रणीत कर दिया जाय। प्रार्थना-समाज के सभी लोग इस प्रस्ताव से सहमत हो गए। वेद के निर्भांत होने पर किसी ने आपत्ति नहीं की। स्वामी जी ने दीपतिमी शरीर और तेजस्विनी वाणी का लोग पर चुंबक जैसा प्रभाव पड़ता था। वह सबको नतमस्तक कर देता था।
आर्यसंज स्थापित हो गया, मणिशंकर, जटाशंकर एवं उनकी अनुपस्थिति में उत्तमराम निर्भयाराम प्रधान का कार्य करने के लिए एवं हरगोविंद दास एवं द्वारिकदास तथ नगीनदास बृजभूषण दास मंत्री का कर्तव्य पालन करने के लिए नियत हुए।
आर्य समाज आंदोलन का प्रसार प्रायः पाश्चात्य प्रभावों को प्रक्रिया के रूप में हुआ।.यह आंदोलन केवल रूप में है पुनरुत्थान था ना कि तत्वों में। यह याद रहेगा ना तो स्वामी दयानंद ही और ना ही उनके गुरु स्वामी विरजानंद ही भाषा शिक्षा से प्रभावित हुए थे। यह दोनों ही शुद्ध रूप से परंपरा को मानने वाले में विश्वास करते थे, और उन्होंने पुनः “वेदों की ओर चलो” का नारा दिया। उत्तर वैदिक काल से आज तक उन्होंने धर्म की संज्ञा दी।
स्वामी स्वामी दयानंद सरस्वती के बचपन का नाम मूल शंकर था। इनका जन्म 1824 ई. में गुजरात के मौरवी जिले में रियासत के निवासी एक ब्राह्मण कुल में हुआ था। इनके पिता जो स्वयं वेदों के महान विद्वान थे उन्होंने उन्हें वैदिक वांग्मय, न्याय, दर्शन आदि को पढ़ाया।
- स्वामी पूर्णानंद 1848 में उन्हें दयानंद सरस्वती नाम दिया।
- दयानंद की जिज्ञासा ने उन्हें योगाभ्यास इत्यादि करने पर मजबूर किया, उन्होंने 15 वर्ष की अवस्था में गृह को त्याग को दिया और वह जगह-जगह घूमते रहे। 1860 ई में मथुरा पहुंचे और स्वामी विरजानंद जी से वेदों के अर्थ और वैदिक धर्म के प्रति अगाध श्रद्धा प्राप्त की।
- 1863 ईस्वी में उन्होंने धर्मों का खंडन करने के लिए “पाखंड खंडनी पताका” लहराई। 1875 ई. में उन्होंने मुंबई में आर्य समाज की स्थापना की जिसका प्रमुख उद्देश्य प्राचीन वैदिक धर्म की स्थापना करना था, धार्मिक तथा सामाजिक कुरीतियां कालांतर में हिंदू समाज में आ गई थी, उन्हें जड़ से उखाड़ फेंकने का प्रण किया।
- 18 77 ईस्वी में आर्य समाज लाहौर की स्थापना हुई, जिसके बाद में आर्य समाज का अधिक प्रचार हुआ। स्वामी दयानंद का उद्देश्य था, कि भारत को धार्मिक सामाजिक तथा राष्ट्रीय रूप से एक कर दिया जाए। उनकी इच्छा थी कि आर्य धर्म ही हमारे देश का समान धर्म हो उन्हें समकालीन हिंदू धर्म तथा समाज में अनेक खामिया देखने को मिली, उन्होंने दोनों क्षेत्रों में जीवन भर अथक कार्य किया।
- धार्मिक क्षेत्र में वह मूर्ति पूजा बहू देवान अवतारवाद 55 प्रात जनतंत्र तथा स्त्रियों में झूठे कर्मकांड को स्वीकार नहीं करते थे वह वेद को ईश्वरीय ज्ञान मानते थे और उपनिषद के समय (काल) तक के साहित्य को स्वीकार करते थे।
- वेद के विषय में उनका तर्क यह था कि वेद की भाषा बहुत ही प्राचीन हैं इसके बाद से जो समय-समय पर लिखे गए हैं सब सत्य नहीं है अपनी दिमाग का उपयोग करो और वैदिक मंत्रों के अर्थों को तर्क की कसौटी पर परखो एवं तब अपनाओ।
- वह संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे और उन्होंने स्थान स्थान पर जाकर कट्टरपंथियों से शास्त्रार्थ किए और सिद्ध किया कि ऊपर लिखे विश्वासों का देश में कोई आधार नहीं है।
- स्वामी दयानंद सरस्वती ने अद्वैतवाद को इस संसार एक माया है। आत्मा परमात्मा का ही भाग है, उसके अतिरिक्त सब झूठ है संसार से पलायन ही जीवन का उद्देश्य है, इस दर्शन को उन्होंने शुद्ध वैदिक परंपरा के उल्टा बतलाया।
- स्वामी दयानंद सरस्वती के अनुसार आत्मा सत्य है, प्रकृत सत्य हैं एवं चित्र है, और परमात्मा सतचित और आनंद है। यह तीनों ही अनादि तथा अनंत हैं। उनके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को शाश्वत मानव धर्म के अनुसार आचरण करके मोक्ष की प्राप्ति करनी चाहिए।
- स्वामी दयानंद सरस्वती कारणात्मक एक्त्ववाद को ही नहीं अपितु नियत को भी अस्वीकार कर दिया। बल दिया मानव के कर्म करने पर उनके अनुसार मानव भाग्य का खिलौना नहीं अपने भाग्य का निर्माता होता है। कोई भी
- कर्म फल से नहीं बच सकता । प्रत्येक व्यक्ति को संसार की कर्मभूमि कार्य करते हुए मोक्ष की ओर अग्रसर होना होगा। अर्थात हाथ पर हाथ रख कर ना बैठ कर्मशील बन जीवन व्यतीत करना होगा। स्वामी जी की इसी शिक्षा को उनकी मृत्यु के बहुत दिनों के उपरांत श्री अरविंद घोष जैसे कर्मठ व्यक्तियों ने अपनाया और उनकी भूरी भूरि प्रशंसा की उनका नारा था था पुनः वेद की ओर चलो ना की वैदिक काल की ओर।
- दयानंद ने ब्राम्हण पुरोहित वर्ग के धार्मिक तथा सामाजिक पक्ष में सर्वोच्चता के दावे को भी चुनौती दी, उन्होंने ब्राह्मणों के इस कथन की की शेष मनुष्य तथा ईश्वर के बीच एक मध्यस्थ हैं, खिल्ली उड़ाई । उनके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को बेद के पढ़ने एवं उससे अपने तर्क के अनुसार पालन करने का अधिकार है।
- सामाजिक क्षेत्र में उन्होंने छुआछूत, जन्मजात जाति, बाल विवाह तथा और कई बुराइयों पर कुठाराघात किया। भारत के सामाजिक इतिहास में पहली सुधारक से जिन्होंने सूत्र तथा स्त्री को पेट पढ़ने एवं उनकी शिक्षा प्राप्त करने योग्य भी धारण करने तथा उन्हें सभी पक्षों की उल्टी जात तथा पुरुष के बराबर के अधिकार प्राप्त करने के लिए आंदोलन किया परंतु संभवत सबसे अधिक कार्य उन्होंने औरतों (स्त्रियों) की स्थित अच्छी करने के लिए किया।
- स्वामी दयानंद सरस्वती के अनुसार पुत्र तथा पुत्रियां समान हैं। इसी प्रकार बाल विवाह शाश्वत वैधव्य, विधवा को हेय मानना, पर्दा प्रथा,दहेज बहुविवाह, वेश्या गमन, देवदासियाँ आदि ऐसी कोई भी सामाजिक बुराइयां नहीं थी जिसे उन्होंने स्वीकार किया हो।
- वह वर्ण व्यवस्था जन्म से नहीं मानते थे कर्म से मानते थे। अर्थात केवल व्यवसाय के अनुसार ही कोई व्यक्ति ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शुद्ध हो सकता है। परंतु यह चारों वर्ण समान हैं, और इनमें कोई अछूत नहीं है।
- स्वामी दयानंद ने हिंदू समाज में मानवता की उस भावना को जागृत किया, जो आज हमें अपने संविधान में देखने को मिलता है।
- संभवत भारत के ज्ञात इतिहास में हिंदू धर्म तथा समाज में इतना मूलभूत दूरगामी व्यापक और प्रभावशाली सुधारक अभी तक कोई नहीं हुआ। संभवत छुआछूत का त्याग तथा स्त्री को पुरुष के बराबर अधिकार जो हमारे संविधान का अंग है, उन्हीं के उद्देश्यों का परिणाम है।
- दयानंद के सभी विचार उनकी प्रसिद्ध पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश में वर्णित है।
- ब्रह्म समाज तथा थियोसोफिकल सभा पाश्चात्य विद्या पढ़े लिखे लोगों की बहुत भाती थी। स्वामी दयानंद की शिक्षा की मुख्य विशेषता यह भी थी कि उसमें उन्होंने पाश्चात्य दर्शन, शिक्षा तथा समाज से कुछ भी नहीं लिया उन्होंने तो केवल यह कहा कि वेद और उपनिषद से परे कुछ नहीं है, और जिन जिन रीति-रिवाजों परंपराओं, कर्मकांड एवं सामाजिक बुराइयों की वेद में अनुमति नहीं है, वह सभी त्याज्य हैं।
- उस समय तक ईसाई, मुस्लिम, सिख, धर्म प्रचारक, हिंदू धर्म की कुरीतियों तथा झूठे विश्वासों की खिल्ली उड़ाते थे। स्वामी दयानंद ने उनके धर्म की भी त्रुटियां निकाली और स्थान-स्थान पर वाद-विवाद (शास्त्रार्थ) कर पुराने रीतिरिवाज के कट्टरपंथियों एवं अन्य धर्म प्रचारकों को परास्त किया।
- स्वामी दयानंद सरस्वती के विचारों को असहिष्णुता तथा ततसीमित भावना का प्रतीक बताया है। परंतु वास्तव में दयानंद की सार्वभौमिकता और उदार चित भावना पाजी हिंदू धर्म की उदारवादी परंपराओं के पूर्णतया अनुकूल थी। इस आंदोलन का वाह्य स्वरूप वैदिक परंपराओं की स्थापना करता था।
- आर्य समाज ने आधुनिक विज्ञान तथा तर्क को अपनाया।
- आर्य समाज के कार्य का सबसे अधिक प्रभाव विद्या एवं सामाजिक सामाजिक क्षेत्र के सुधार तथा सेवा के क्षेत्र में देखने को मिलता था। आर्य समाज के सामाजिक विचारों में अन्य बातों के अलावा जिन पर बल दिया गया वह थी।
- एक ईश्वर का प्रति तथा सभी मनुष्यों का धातु तत्व।
- स्त्री पुरुष समानता।
- मनुष्य जातियों के बीच पूर्ण न्याय तथा निष्पक्षता।
- प्रेम योगदान की भावना।
- आर्य समाज ने आंदोलन भी आरंभ किया जिसके अंतर्गत लोगों को अन्य धर्मों से हिंदू धर्म में लाने का प्रयत्न किया गया इसके अलावा लगभग 60000 मलकानी राजपूतों को और उन हिंदुओं को जिन्हें महिला विद्रोह के दिनों में 1923 एवं 1947 में भारत विभाजन के समय बलपूर्वक मुसलमान बना लिया गया था उन्हें पुनः हिंदू धर्म लौटने का अवसर दिया।
- स्वामी दयानंद के आर्थिक विचारों में स्वदेशी का विशेष महत्व था राजनीतिक क्षेत्र में वह कहते थे कि बुरे से बुरा देसी राज्य अच्छे से अच्छे विदेशी राज्य से अच्छा है अर्थात उनकी शिक्षा के फलस्वरूप उनके मानने वालों में देश के प्रति और देशभक्ति के विचार कूट-कूट कर भरी थी, और भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में यह लोग अग्रगामी रहे।
- वैलेंटाइन शिरोल ने आज समाज को सत्य ही भारतीय शांति का जन्मदाता कहा है।
- महात्मा हंसराज पंडित गुलशन लाला लाजपत राय और स्वामी श्रद्धानंद इसके विशिष्ट कार्यकर्ताओं में से थे।
- आर्य समाज का प्रचार पंजाब उत्तर प्रदेश राजस्थान और बिहार जैसे कई राज्यों में विशेष रूप से हुआ।
- अंग्रेजों ने ब्रह्म समाज आर्य समाज को प्रोत्साहन दिया था, लेकिन दयानंद की लॉर्ड नार्थ बुक से भेंट के बाद अंग्रेजों का सोच बदल गया, इसका प्रमुख कारण यह भी था कि नाथ बुक में इन्हें अपने बातों के साथ-साथ विक्टोरिया का यशोगान करने के लिए कहा। जिसे अस्वीकार कर दिया।
- 1874 ई में दयानंद ने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ प्रकाशित किया, केशव चंद्र सेन की प्रेरणा से उन्होंने इसे हिंदी भाषा में लिखा।
- स्वामी दयानंद सरस्वती पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने ,स्वराज, शब्द का प्रयोग किया.. इन्होंने प्रथम बार यह बताया कि विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करना चाहिए और भारत में बनी स्वदेशी वस्तुओं का ही प्रयोग करना चाहिए।
- जिन्होंने हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार किया
- 1882 सदी में इन्होंने एक गौ रक्षा समिति बनाई।
- राजस्थान के अजमेर में (30अक्टूबर 1883) इनका देहवसान हो गया।
- आर्य समाज ने आंदोलन भी आरंभ किया जिसके अंतर्गत लोगों को अन्य धर्मों से हिंदू धर्म में लाने का प्रयत्न किया गया इसके अलावा लगभग 60000 मलकानी राजपूतों को और उन हिंदुओं को जिन्हें महिला विद्रोह के दिनों में 1923 एवं 1947 में भारत विभाजन के समय बलपूर्वक मुसलमान बना लिया गया था उन्हें पुनः हिंदू धर्म लौटने का अवसर दिया।
- स्वामी दयानंद के आर्थिक विचारों में स्वदेशी का विशेष महत्व था राजनीतिक क्षेत्र में वह कहते थे कि बुरे से बुरा देसी राज्य अच्छे से अच्छे विदेशी राज्य से अच्छा है।
- वैलेंटाइन शिरोल ने आज समाज को सत्य ही भारतीय शांति का जन्मदाता कहा है।
- महात्मा हंसराज पंडित गुलशन लाला लाजपत राय और स्वामी श्रद्धानंद इसके विशिष्ट कार्यकर्ताओं में से थे।
- आर्य समाज का प्रचार पंजाब उत्तर प्रदेश राजस्थान और बिहार जैसे कई राज्यों में विशेष रूप से हुआ।
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आर्य समाज के 10 नियम
- केवल वेदों में निहित है। इस कारण वेदों का अध्ययन परम आवश्यक है।
- वेद मंत्रों के आधार पर किया जाना चाहिए।
- मूर्ति पूजा का विरोध।
- अवतारवाद एवं धार्मिक यात्राओं यक विरोध।
- कर्म सिद्धांत एवं आवागमन का सिद्धांत का समर्थन।
- नीरकर ईश्वर की एकता में विश्वास।
- स्त्री शिक्षा में विश्वास।
- विशेष परिस्थितियों में विधवा विवाह की स्वीकृति।
- बाल विवाह एवं बहुविवाह का विरोध।
- हिन्दी, संस्कृत, भाषा का प्रचार।
Swami Dayanand Saraswati Jayanti (स्वामी दयानंद सरस्वती जयंती)
स्वामी दयानंद सरस्वती जी का जीवन परिचय
- स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म 12 फरवरी सन 1824ई. में (मुंबई के मौरवी रियासत) के पास काठियावाड़ क्षेत्र गुजरात में हुआ था। इनके पिता जी का नाम करश्न जी लालजी तिवारी और माता जी का नाम यशोदाबाई था।
- स्वामी जी के पिता एक कर कलेक्टर होने के साथ-साथ ब्राह्मण कुल के बहुत ही प्रभावशाली व्यक्ति थे। इनका जन्म मूल नक्षत्र में होने के कारण स्वामी दयानंद सरस्वती का बचपन में नाम मूल शंकर रखा गया। इनका प्रारंभिक जीवन बहुत आराम से बीता। दयानंद सरस्वती की माता वैष्णो थी जबकि उनके पिता शैव मत को मानते थे। आगे चलकर विद्वान बनने के लिए संस्कृत, वेद, शास्त्रों और अन्य कई धार्मिक ग्रंथों के अध्ययन में लग गए।
महाशिवरात्रि का ज्ञान (बोध)
- स्वामी दयानंद सरस्वती महादेव शिव भोले के बहुत ही बड़े भक्त थे। बालक मूल शंकर के पिता ने महाशिवरात्रि के समय व्रत रखने को कहा। शिव मंदिर में रात को बालक ने चूहों को शिवलिंग पर उत्पात मचाते हुए देखा।
- मूल शंकर ने कहा की यह वह शंकर नहीं जिनके बारे में काथा सुनाई गई। इसके उपरांत मूल शंकर मंदिर से घर चला गया, और उसके मन में सच्चे शिव के प्रति जिज्ञासा उठी।
स्वामी दयानंद सरस्वती का गृह त्याग
- स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपने परिवार की (छोटी बहन एवं अपने चाचा) की हैजे के कारण हुई मृत्यु से वह जीवन-मरण के अर्थ पर इतनी गहराई से विचार मंथन करने लगे, एवं ऐसे सवालों को पूछने लगे की उनके माता-पिता भी सोंच में पड़ गए।
- स्वामी जी के माता-पिता ने उनका विवाह किशोरावस्था के शुरुवात में ही करने का निर्णय लिया। लेकिन बालक मूल शंकर ने निश्चय किया कि उनके लिए विवाह नहीं बना है, और वह 1846 में सत्य की खोज की ओर चल पड़े।
स्वामी दयानंद सरस्वती का ज्ञान की खोज
- स्वामी दयानंद सरस्वती को शिवरात्रि के दिन उनके जीवन में एक नवीन मोड़ आया। वह घर से निकल पड़े और यात्रा करते हुए वह गुरु विरजानंद के पास पहुंचे। गुरुवर ने उन्हें पाणिनी व्याकरण, पतंजलि योग सूत्र, तथा वेद वेदांग, का अध्ययन कराया।
- गुरु दक्षिणा में उन्होंने मांगा विद्या को सफल कर दिखाओ, परोपकार करो, मत- मतांतरों कि अविद्या को मिटाओ। वेद के प्रकाश से इस अज्ञानी रूप अंधकार को दूर करो वैज्ञानिक धर्म वैदिक धर्म का आलो सर्वर वितरण करो यही तुम्हारी गुरूदक्षिणा है उन्होंने अंतिम शिक्षा दी मनुष्य कृतकृत्य में ईश्वर और विषयों की निंदा है विस्तृत ग्रंथों में नहीं।
स्वामी दयानंद सरस्वती का ज्ञान प्राप्त खोज के बाद
- स्वामी दयानंद सरस्वती ने कई पवित्र स्थानों की यात्रा की, उन्होंने हरिद्वार में कुंभ के अवसर पर पाखंड खंडनी पताका फहराई। उन्होंने अनेक शास्त्रार्थ किए वह कोलकाता में बाबू केशव चंद्र सेन तथा देवेंद्रनाथ ठाकुर के संपर्क में आए।
- वहां से उन्होंने पूरे वस्त्र पहनना तथा हिंदी में बोलना और लिखना प्रारंभ किया। यहीं उन्होंने तत्कालीन वायसराय को कहा था मैं चाहता हूं की विदेशियों का राज भी सुखदायक नहीं है। परंतु भिन्न-भिन्न भाषा पृथक पृथक शिक्षा अलग-अलग व्यवहार का छूटना आदि दुष्कर है। बिना इसके छोटे परस्पर व्यवहार एवं पूरा उपकार और अभिप्राय सिद्ध होना कठिन है।
सरस्वती जी के समाज सुधार के कार्य
- महर्षि दयानंद का समाज सुधार में व्यापक योगदान रहा। महर्षि दयानंद ने तत्कालीन समाज में सामाजिक बुराइयां और अंधविश्वासों और कई रूढ़ियाँ व् पाखंड का विरोध किया। उनके ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश में समाज को अध्यात्म और आवश्यकता से परिचित कराया ।
सामाजिक कुरीतियाँ का विरोध | समाज सुधार के कार्य |
जंनमा जातिवाद | गुण कर्म स्वभाव आधारित वर्ण व्यवस्था का समर्थन |
छुआ-छूत | शुद्धि आंदोलन |
बाल-विवाह | दलीतोद्धार |
सती-प्रथा | विधवा विवाह |
मृतक-श्राद्ध | अन्तर्जातीय विवाह |
पशु-बलि | सर्व शिक्षा अभियान |
नर-बलि | नारी सशक्तिकरण |
पर्दा-प्रथा | नारी को शिक्षा का ढिकर |
देव दासी प्रथा | सबको वेद पढ़ने का अधिकार |
वेश्या वृति | गुरुकुल शिक्षा |
शवों को दफनाना या नदी में बहाना | प्रथम हिन्दू अनाथली की स्थापना |
मृत बच्चों को दफनाना | प्रथम गौशाला की स्थापना |
समुद्र यात्रा का निषेध खंडन | स्वदेशी आंदोलन |
वे योगी थे तथा प्राणायाम पर उनका विशेष बल था। वह सामाजिक पुनर्गठन में सभी बड़ों तथा स्त्रियों की भागीदारी की पक्षधर थे उनमें न केवल देश भक्ति की भावना दिखाई देती थी, बल्कि वह तो 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वाले अग्रिम लोगों में थे ।
आर्य समाज की स्थापना का शिक्षा में योगदान
- आर्य समाज में शिक्षा योग ज्ञान के प्रचार पर बहुत जोर दिया। उनके अनुयायियों ने विद्या के प्रसार तथा अंधकार को समाप्त करने में विशेष कार्य किया। उनकी मृत्यु के पश्चात 1886ई में आरंभ की गई । दयानंद एंग्लो वैदिक संस्थान जल्द ही देश के कोने कोने में विस्तारित हो गई।
- स्वामी जी के अनुयाई रूढ़िवादी एवं प्रतिक्रियावादी नहीं थे।
- अंग्रेजी भाषा एवं ज्ञान को भी अपनाया अर्थात राज्य तथा पाश्चात्य ज्ञान का सर्वोत्तम समन्वय इसमें मिलता है।
- शिक्षा संस्थाओं को भी आर्य समाज में रूढ़िवादी एवं छुआछूत, अंधविश्वासों से निकलने के एक साधन के रूप में प्रयोग किया।
- 1892 एवं 93 में आर्य समाज के दो दल हो गए एक पाश्चात्य शिक्षा का विरोधी था
- 1902 में हरिद्वार में ही गुरुकुल स्थापित कर लिया जहां प्राचीन वैदिक शिक्षा प्राचीन पद्धति से दी जाती थी और उसी के नमूने पर कई अन्य स्थानों में गुरुकुल बनाए गए।
स्वामी दयानंद के योगदान के बारे में महापुरुषों के विचार
- डॉक्टर भगवान दास ने कहा था कि स्वामी दयानंद हिंदू पुनर्जागरण के मुख्य निर्माता थे।
- श्रीमती एनी बेसेंट का कहना था कि स्वामी दयानंद पहले व्यक्ति थे जिन्होंने आर्यावर्त भारत आर्यवर्त वो भारतीयों के लिए की घोषणा की
- सरदार पटेल के अनुसार भारत की स्वतंत्रता की न्यू वास्तव में स्वामी दयानंद ने डाली थी।
- पट्टाभि सीतारमैया का विचार था कि गांधीजी राष्ट्रपिता है पर स्वामी दयानंद राष्ट्रपिता महा।
- लेखक रोमा रोहता के अनुसार स्वामी दयानंद राष्ट्रीय भावना और जन जागृत को क्रियात्मक रूप में प्रयत्नशील थे।
- एक लेखक का कहना था दयानंद का प्रादुर्भाव लोगों को कारागार से मुक्त कराने और जाति बंधन तोड़ने के लिए हुआ था उनका आदर है आर्यावर्त उठ जाग आगे बढ़ समय आ गया है नए युग में प्रवेश कर।
निष्कर्ष –
मेरे प्रिय दोस्तों इस लेख Arya Samaj Ki Sthapna में आर्य समाज की स्थापना, स्वामी दयानंद सरस्वती का जीवन परिचय, आर्य समाज का समाज के प्रति सुधार का कार्य, शिक्षा में योगदान आदि के बारे विस्तृत रूप से अवगत कराया। यदि मेरी तरफ से कोई भाग छूट गया हो, तो कमेन्ट अवश्य करना। आप अपने विचार अवश्य दें इंतजार रहेगा।
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Q.आर्य समाज की स्थापना कब और किसने की थी?
आर्य समज की स्थापना स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने सन 1875ई. बंबई में किया। स्वामी दयानंद सरस्वती जी को भारत का मार्टिन लूथर किंग कहा जाता है।
Q.आर्य समाज की स्थापना किसने और क्यों की?
आर्य समज की स्थापना स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने सन 1875ई. बंबई में किया। आर्य समाज की स्थापन स्वामी दयानंद जी ने इस उद्देश्य के लिए किया, की समाज के अंधविश्वास, पाखंड, उंच- नीच का भेद भाव आदि मिटाया जा सके। यह आंदोलन आधुनिक संप्रदाय एवं आधुनिक हिन्दू धर्म का सुधार आंदोलन था।
Q.आर्य समाज का मुख्यालय कहाँ है?
आर्य समाज का पहला मुख्यालय बंबई में था।और इस समय नई दिल्ली में है।
Q.आर्य समाज की स्थापना सर्वप्रथम कहाँ हुई थी?
आर्य समाज की स्थापना सर्वप्रथम 10 अप्रैल 1875ई गिरिगाँव मुंबई में हुई थी।
Q.आर्य समाज का पहला नियम क्या है?
आर्य समाज का नियम – केवल वेदों में निहित है। इस कारण वेदों का अध्ययन परम आवश्यक है।