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भारतीय अर्थव्यवस्था का उद्भव। (कृषि बनाम उद्योग, नियोजित एवं मिश्रित अर्थ व्यवस्था, सार्वजनिक क्षेत्र पर जोर आदि)।
भारतीय अर्थव्यवस्था का उद्भव ,आजादी मिलने के समय भारत की अर्थव्यवस्था की स्थित बहुत खराब थी। औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था का सटीक उदाहरण होने के कारण भारत अपनी नहीं बल्कि यू.के. के विकास का कार्य के रहा था।
कृषि क्षेत्र एवं उद्योग क्षेत्र दोनों में ही सरंचनात्मक विसंगतियाँ थी। भारत के आजादी के 50 वर्ष पूर्व जहां पर विश्व के दूसरे देश में आर्थिक विकास में सरकारें अपनी सक्रिय भूमिका निभा रही थी, वहीं भारत की सरकार ऐसा कुछ करने के अतिरिक्त शोषक का कार्य कर रही थी।
भारत से इंग्लैंड की तरफ निवेश योग्य पूंजी का न सिर्फ एकतरफा हस्तांतरण(ड्रेन ऑफ वेल्थ) प्रारंभ था। बल्कि रुपये की असमान विनिमय एवं हथकरघा उद्योग को भी काफी नुकसान हुआ। ब्रिटिश शासकों ने सामाजिक क्षेत्र की उपेक्षा की जिसका नकारात्मक प्रभाव अर्थव्यवस्था में उत्पादन एवं उत्पादकता पर पड़ा।
स्वतंत्रता प्राप्ति के समय साक्षरता दर मात्र 17% थी,जबकि जन्म के समय जीवन प्रत्याशा मात्र 32.5 वर्ष थी।
उपनिवेशवादियों ने भारत भारत के औद्योगिकीकरण की भी उपेक्षा की, भारत में उद्योग का विकास करने के लिए कोई बेसिक आधार नहीं बनाया। जबकि भारत देश का कच्चा माल का दोहन किया। जो भारतीय उभरे भी वह ब्रिटिश आर्थिक पूंजी पर निर्भर थे।
उद्योग के बहुत अधिक स्थान ब्रिटिश के अधीन थे, जैसे- जहाजरानी,बैंकिंग,बीमा,कोयला,बागान आदि।
भारत देश के आजादी के पहले अर्थव्यवस्था के विकास की दर बिल्कुल रुकी हुई थी। जिसमें उत्पादन का कोई दृश्य नहीं दिखाई देता है।
ब्रिटिश शासन काल में भारत की अर्थव्यवस्था निम्न स्तर की थी।
आर्थिक सांख्यिकविद अएंगस मेडिसिन के अनुसार- 1600 से 1870ई. तक भारत में प्रति व्यक्ति वृद्धि दर शून्य यानि नगण्य थी। 1870ई. से 1947ई. के मध्य प्रतिव्यक्ति वृद्धि दर 0.2% थी ।
राजनेताओं एवं उद्योगपतियों को भारत के आजाद होने पश्चात देश कई आर्थिक स्थित का अंदाजा भी था। देश के आजादी के बाद भारत के आर्थिक विकास से पूर्व ही आपसी सहमति देखने को मिलती है। जो निमन्वत है-
- विकास की सीधी जिम्मेदारी राज्यों एवं सरकारों की होगी। सर्वजिनक क्षेत्रों के लिए महत्त्वकांक्षी एवं अहम भूमिका होगी।
- बड़े उद्योग विकास की जरूरत।
- विदेशी निवेश के लिए उत्साह दिकहने की जरूरत नहीं।
- आर्थिक योजना की जरूरत।
जब देश आजाद हुआ तब भारत सरकार के सामने आर्थिक क्षेत्र में विकास के लिए एक व्यवस्थित संस्था की जरूरत थी। उस समय देश की अर्थ व्यवस्था से कोई उम्मीद नहीं थी।
भारत देश के राजनीतिक नेतृत्व ने यह अहम फैसला लिया की यह समय देश के भविष्य को आकार देने का है। बहुत सारे अहम फैसले 1956ई. में लिए गए जो आज भी भारतीय अर्थव्यवस्था के ढांचे को मजबूत बनाने में अपना योग दान दे रहें है।
कृषि बनाम उद्योग का मुद्दा-:
भारत देश में उस समय यह चर्चा का प्रासंगिक मुद्दा था की देश की अर्थव्यवस्था को कृषि या उद्योग विकास की प्रक्रिया को बढ़ाएंगे। उस समय की तत्कालीन सरकार ने उस समय यह सोच की देश के विकास को गति देने उद्योग को प्राथमिकता के रूप में चीन किया गया।
स्वतंत्रता के राजनीतिक नेतृत्व ने उद्योग को अर्थव्यवस्था को ही मुख्य रूप से चुना। यह पूर्व में ही राष्ट्रवादी नेताओं के के प्रभावी समूह द्वारा 1930 ई. के दशक में ही यह निश्चित हो चुकथा जब उन्होंने भारत में आर्थिक नियोजन की आवश्यकता अनुभव करके भी 1938ई. में राष्ट्रीय योजना समिति का गठन किया गया।
देश में उन पूर्व की अपेक्षाओं अथवा आवश्यकताओं का अभाव था, जिसके कारण उद्योग को मुख्य रूप से विकास का चालक निर्धारित किया जा सकता था। वे बिन्दु प्रमुख रूप से निमन्वत है-:
- आधारभूत सरंचना- जैसे बिजली,परिवहन,एवं संचार की अनुपस्थिति।
- आधारभूत उद्योग- लोहा एवं इस्पात, सीमेंट,कोयला,कच्चा तेल, तेलशोधन आदि।
- निवेश योग्य पूंजी की कमी चाहे वह सरकार हो निजी क्षेत्र हो।
- कुशल मानव संसाधन की कमी। लोगों में उद्यमशीलता का अभाव।
- अन्य सामाजिक, मनोवैज्ञानिक कर्क जो की अर्थ व्यवस्था के सुचार औद्योगिक करण में बाधक बने।
बीसवीं दशक के अंतिम समय में कृषि को लेकर आर्थिक सोच की दुनिया में बड़े परिवर्तन हुए। करीक्षि किसी अर्थव्यवस्था के लिए पिछड़ेपन का प्रतीक नहीं रह गया अगर इसे वृद्धि एवं विकास का इंजन बनाने के प्रयास हुए। तो अन्य देशों ने सिद्ध कर दिखया।
वर्ष 2002 में भारत सरकार ने यह घोषणा की अब से कृषि ही उद्योग के स्थान पर अर्थव्यवस्था की प्रधान चालक होगी।
योजना आयोग ने संभव बनाया था, 10 विन योजना के अनुसार इस नीतिगत परिवर्तन से अर्थव्यवस्था तीन बड़ी चुनौतियों से निबटने में समर्थ होगी।
- अर्थव्यवस्था कृषि उत्पादन बढ़ाकर खाद्य सुरक्षा हासिल करने में समर्थ होगी।
- गरीबी उन्मूलन की समस्या बहुत हद तक हल की जा सकेगी।
- बाजार की दृष्टि से विफल उदाहरण के रूप में देखि जाने वाले भारत की स्थित सुधार हो सकेगा।
नियोजित एवं मिश्रित अर्थव्यवस्था-:
स्वतंत्र भारत एक नियोजित एवं मिश्रित अर्थव्यवस्था वाला देश बना। भारत को राष्ट्रीय नियोजन की आवश्यकता थी, यह राजनीतिक नेतृत्व ने आजादी के पूर्व ही तय कर लिया था।
वर्ष 2015 में की शुरुवात में सरकार द्वरा एक बड़े बदलाव की घोषणा की गई। वर्तमान योजना आयोग की जगह पर एक ज्ञे छींक निकाय नीति आयोग की स्थापना की गई।
आत्मनिर्भरता की पहल-:
आत्मनिर्भर भारत की नियोजन प्रक्रिया के 6 बड़े उद्देश्यों में से एक है। कोविड-19 महामारी के संकट में भारत सरकार द्वरा मी 2020 में इस दिशा में एक नई पहल की गई। इस लक्ष्य को सार्थक बनाने के लिए सरकार द्वारा आत्मनिर्भर भारत अभियान की शुरुवात की गई।
सार्वजनिक क्षेत्र पर जोर-:
राज्य को अर्थव्यवस्था में एक सक्रिय एवं प्रभावी भूमिका निभानी है, स्वतंत्रता प्राप्ति तक यह बिल्कुल निश्चित हो गया था । सार्वजनिक क्षेत्र उपक्रम के महत्त्वकांक्षी विस्तार के कारणों को समझने की कोशिश करेंगे। जो निमन्वत है-
- अधिरचना संबंधी जरूरतें
- औद्योगिक जरूरतें
- रोजगार सृजन
- मुनाफा तथा सामाजिक क्षेत्र का विकास।
- निजी क्षेत्र का उदय